बाइबल की भविष्यवाणियों के अनुसार आए यीशु मसीह की सुसमाचार की सेवकाई आसान नहीं थी। जैसा कि यशायाह ने भविष्यवाणी की थी कि इस्राएल के दोनों घरानों के लिये ठोकर का पत्थर और ठेस की चट्टान है(यश 8:13-15), यीशु एक नम्र व्यक्ति के रूप में आए जिन्हें लोग आसानी से नहीं पहचान सकते थे और उन्होंने सभी प्रकार के उत्पीड़न और अपमान को सह लिया।केवल कुछ चेलों ने यीशु को उद्धार की नींव के रूप में एक बहुमूल्य कोने के पत्थर के रूप में ग्रहण किया। कठिनाइयों के बावजूद, यीशु ने अंत तक मानव जाति के उद्धार के लिए खुद को समर्पित किया। बाइबल में लिखे यीशु के कार्यों में मसीह का गहरा प्रेम और हमारे उद्धार के लिए शिक्षाएं शामिल है।
यीशु की सुसमाचार सेवकाई की शुरुआत
यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के द्वारा बपतिस्मा लेने के बाद यीशु ने अपनी सुसमाचार सेवकाई शुरू की(मर 1:1-9)। जब पुन्तियुस पिलातुस यहूदिया का हाकिम था और राजा हेरोदेस अंतिपास ने गलील पर शासन किया, उन दिनों में यूहन्ना ने लोगों को मन फिराव का बपतिस्मा दिया और उसके बाद आने वाले मसीह के बारे में प्रचार किया(लूक 3:1-6)। जब यीशु बपतिस्मा लेने के लिए यूहन्ना के पास आए, तो यूहन्ना ने गवाही दी कि यीशु ही वह मसीह हैं जिनकी लोग प्रतीक्षा कर रहे थे।
यीशु बपतिस्मा लेने के बाद, जंगल में गए और चालीस दिन तक उपवास करते हुए प्रार्थना की।उन्होंने उपवास के बाद, शैतान से रोटी खाने, परमेश्वर की शक्ति की परीक्षा करने और इस संसार के धन और वैभव को हासिल करने जैसी परीक्षाओं का सामना किया। यीशु ने हर बार, बाइबल के वचनों के साथ शैतान की परीक्षाओं पर जय पाई, उन्होंने कहा, “मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा,” “तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर,” “तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर और केवल उसी की उपासना कर”(मत 4:1-11)।उस समय से यीशु ने राज्य का सुसमाचार प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, “मन फिराओ।”
उस समय से यीशु ने प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, “मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है।” मत 4:12-17
यीशु का सुसमाचार कार्य
लगन से सुसमाचार का प्रचार किया
उन्होंने गलील के तट पर पतरस, अन्द्रियास, याकूब और यूहन्ना को अपना चेला बनाया। उसके बाद, यीशु अपने चेलों के साथ सारे गलील में गए, बीमारों को चंगा किया और उद्धार प्राप्त करने के लिए इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अपना उद्धार का हाथ बढ़ाया।(मत 4:23-25)।
बहुत से लोग, जिन्होंने उनके कार्यों के बारे में सुना, यीशु के पास एकत्र हुए। यीशु ने उन्हें आठ आशीषें जो ईसाइयों के पास हो सकती हैं और स्वर्ग कैसे जाना है, यह सिखाया(मत 5-6)। यीशु ने उन्हें इस तथ्य के प्रति जागृत किया कि परमेश्वर के पुत्र कहलाना और अनंत स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना सच्ची आशीषें है, भले ही उन्हें इस पृथ्वी पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। यीशु ने उन्हें झूठे भविष्यद्वक्ताओं से सावधान रहने के लिए कहा और उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि स्वर्ग जाने के लिए, हमें कुकर्म नहीं बल्कि परमेश्वर की इच्छा का पालन करना और उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए(मत 7:15-23)। क्योंकि मसीह ने यह शिक्षा पहाड़ पर दी, इसलिए इसे “पहाड़ पर उपदेश” कहा जाता है।
यीशु की शिक्षाएं उन दिनों के यहूदियों की धार्मिक शिक्षाओं से अलग थीं। अधिक लोग यीशु के अंतहीन उत्साही उपदेश, उनकी अनुग्रहपूर्ण शिक्षाओं और शक्ति से चकित हो गए। परिणामस्वरूप, अधिक लोग ईमानदारी से उनका अनुसरण करने लगे और उन पर विश्वास करने लगे।
उत्पीड़न सहा
जितना अधिक लोगों ने यीशु के वचनों पर ध्यान दिया, उतनी ही यीशु की निन्दा और आलोचना और अधिक गंभीर हो गई। फरीसियों ने यीशु पर सब्त को अपवित्र करने और दुष्टात्माओं की सहायता से दुष्टात्माओं को बाहर निकालने का आरोप लगाया। नासरत के लोगों ने यीशु को एक खड़ी चट्टान से नीचे गिराने की कोशिश की, और कुछ यहूदियों ने यीशु पर पथराव करने की कोशिश की। उन्होंने यीशु को अस्वीकार करना और सताना नहीं रोका क्योंकि वे उन्हें शारीरिक दृष्टिकोण से देखते थे।
“मैं और पिता एक हैं।” यहूदियों ने उस पर पथराव करने को फिर पत्थर उठाए। इस पर यीशु ने उनसे कहा, “मैं ने तुम्हें अपने पिता की ओर से बहुत से भले काम दिखाए हैं; उन में से किस काम के लिये तुम मुझ पर पथराव करते हो?” यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, “भले काम के लिये हम तुझ पर पथराव नहीं करते परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के कारण; और इसलिये कि तू मनुष्य होकर अपने आप को परमेश्वर बनाता है।” यूह 10:30-33
नई वाचा की स्थापना
अत्याचार और मुश्किल में भी, यीशु सुसमाचार का प्रचार करते रहे। यीशु ने पुराने नियम में मूसा की व्यवस्था के अनुसार नहीं, बल्कि मसीह की व्यवस्था के अनुसार पर्वों को मनाने का उदाहरण दिखाया। प्रत्येक सब्त के दिन, यीशु ने पशु की बलि चढ़ाने के बजाय आराधनालय में आराधना की(लूक 4:16-19)। यीशु ने झोपड़ियों के पर्व के दिन प्रचार किया और उन लोगों को जिन्होंने उन पर विश्वास किया, जीवन का जल यानी पवित्र आत्मा प्रदान किया(यूह 7:2, 37-39)।
अंतिम फसह पर यीशु ने अपने चेलों के साथ रोटी और दाखमधु से पवित्र भोज मनाया। उन्होंने कहा कि फसह की रोटी और दाखमधु उनका मांस और लहू है, और उन्होंने रोटी खाने और दाखमधु पीने वालों को पापों की क्षमा और अनन्त जीवन का वादा किया(मत 26:19, 26-28; यूह 6:53-54)। यीशु ने फसह को अपने लहू के द्वारा स्थापित की गई नई वाचा कहा(लूक 22:20)। अगले दिन, यीशु ने क्रूस पर अपना लहू बहाकर नई वाचा को पूरा किया। इसके द्वारा, परमेश्वर ने मूसा की व्यवस्था, जो पापियों को दोषी ठहराती है, पूरी तरह से मसीह की व्यवस्था में बदल दिया, जो उन्हें बचाती है।
यीशु की शिक्षाएं
यीशु ने अपनी तीन साल की सेवकाई के दौरान खुद को राज्य के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए समर्पित कर दिया। उनकी शिक्षाएं उस दीपक के समान हैं जो स्वर्ग के राज्य का मार्ग दिखाती हैं। जो लोग यीशु की शिक्षाओं का पालन करते हैं और नई वाचा के सत्य का पालन करते हैं, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।
आत्मिक दुनिया और स्वर्ग
यीशु के दिनों में, अधिकांश यहूदी सोचते थे कि परमेश्वर की आशीष पृथ्वी पर एक लंबा जीवन, धन और सम्मान है; लेकिन, यीशु ने जिन आशीषों की बात की, वे उन आशीषों से अलग थीं जिन्हें दुनिया के लोग आशीष मानते हैं।यीशु ने उन लोगों को आत्मिक दुनिया के बारे में प्रबुद्ध किया जो केवल इस पृथ्वी के अस्थायी जीवन को देखते हैं।यीशु ने आत्मा के अस्तित्व को प्रकट किया जो शारीरिक मृत्यु से परे है और आत्मिक घर, स्वर्ग को जानने दिया।उन्होंने मृत्यु के बाद परमेश्वर के न्याय के बारे में भी चेतावनी दी, और सिखाया कि हमें शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक आशीषों(यानी, स्वर्गीय पुरस्कारों) की तलाश करनी चाहिए (मत 10:28; लूक 16:19-24)।
परमेश्वर के साथ संतों का संबंध
पुराने नियम में, कुछ वचन परमेश्वर को पिता के रूप में वर्णित करते हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में, परमेश्वर को प्रभु या राजा के रूप में संदर्भित किया गया है। परमेश्वर और इस्राएलियों के बीच के संबंध को प्रधान और अधीनस्थों के बीच के संबंध के रूप में माना जाता था जैसे कि स्वामी और सेवक या राजा और उसके लोग। लेकिन, यीशु ने कहा कि परमेश्वर जो स्वर्ग में हैं “हमारे पिता” हैं। जिन लोगों ने यीशु द्वारा परमेश्वर को “पिता” कहे जाने को नापसंद किया, उन्होंने यह कहते हुए उसकी निंदा की कि उसने स्वयं को परमेश्वर के बराबर होने के लिए ऊंचा उठाया है; हालांकि, यीशु ने अपने सुसमाचार सेवकाई के दौरान अपने चेलों को बताया कि परमेश्वर हमारे आत्माओं के पिता हैं(मत 6:9; 23:9; यूह 17:1-2; 21:17)। उन्होंने सिखाया कि संत परमेश्वर की संतान हैं।
नम्रता और दयालुता
यीशु ने नम्र और दयालु होने के महत्व का अभ्यास किया और उस पर जोर दिया(मत 11:29)। उन दिनों के धार्मिक नेताओं ने लोगों द्वारा सेवा किए जाने को हल्के से लिया; हालांकि, यीशु ने परमप्रधान परमेश्वर होते हुए भी स्वयं को दीन किया(फिलि 2:5-8)। यहां तक कि उन्होंने चुंगी लेने वालों और पापियों को भी उद्धार की वही शिक्षा दी, जिन्हें यहूदी लोग तुच्छ जानते थे। उन्होंने यह भी सिखाया कि जो लोग छोटे बच्चों की तरह खुद को दीन करते हैं, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे(मत 18:1-4)।